गीता प्रेस, गोरखपुर >> परमशान्ति का मार्ग - भाग 2 परमशान्ति का मार्ग - भाग 2जयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत है परमशान्ति का मार्ग भाग-2.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रथम संस्करण का निवेदन
इस पुस्तक में ‘कल्याण’ के 30वें से 32वें वर्ष तक के
अंकों
में प्रकाशित हुए मेरे लेखों का संशोधन करके संग्रह किया गया है। इन लेखों
में आस्तिकता, भगवत्प्रेम, मनोनिरोध, श्रद्धा-भक्ति, ज्ञान-वैराग्य,
सद्गुण, सदाचार, धर्म, पुरुषार्थ, उत्तम भाव, सत्संग-स्वाध्याय आदि साधनों
का, महापुरुषों के प्रभाव का एवं भगवान् के स्वरूप का बहुत सरलतापूर्वक
विवेचन किया गया है; साथ ही सभी मनुष्यों के लिये उपयोगी सब प्रकार की
उन्नति, व्यावहारिक और सामाजिक सुधार, शिष्टाचार, बालकों के कर्तव्य आदिका
एवं तमोगुण, आत्महत्या और ऋण आदि के दुष्परिणामों का भी निरूपण किया गया
है। अतः सभी भाइयों, बहिनों और माताओं से विनीत प्रार्थना है कि वे यदि
उचित समझें तो इन लेखों को मननपूर्वक पढ़ने की कृपा करें और तदनुसार अपना
जीवन बनाने का पूर्ण प्रयत्न करें, जिससे वे परम शान्ति और परमानन्दकी
प्राप्ति के पथपर अग्रसर हो सकें। इनमें लिखी बातों को काममें लानेपर
मनुष्यका अवश्य कल्याण हो सकता है; क्योंकि ये ऋषि-मुनि, संत-महात्मा,
शास्त्र और भगवान् के वचनों के आधार पर लिखी गयी हैं। मैंने तो जो कुछ भी
निवेदन किया है, वह मेरी एक प्रार्थना है। जो कोई भी उसको काममें लायेंगे,
उनका मैं अपने को आभारी मानता हूँ।
पुस्तक में जो भी त्रुटियाँ रह गयी हों, उनके लिये विज्ञजन क्षमा करें और मुझे सूचना देने की कृपा करें।
पुस्तक में जो भी त्रुटियाँ रह गयी हों, उनके लिये विज्ञजन क्षमा करें और मुझे सूचना देने की कृपा करें।
विनीत
जयदयाल गोयन्दका
जयदयाल गोयन्दका
हृदय के उत्तम भावों से परम लाभ
मनुष्य को अपने हृदय का भाव उत्तम-से-उत्तम बनाना चाहिये। हृदय का भाव
उत्तम होनेपर मनुष्य की सारी चेष्टाएँ अपने-आप उत्तम होने लगती हैं। इसके
विपरीत उत्तम-से-उत्तम कर्म भी भाव-दूषित होनेके कारण निम्न श्रेणी का बन
जाता है। एक मनुष्य यज्ञ, दान, तप, देवताओं की उपासना आदिका अनुष्ठान यदि
अपने शत्रु को मारने या दुःख पहुँचाने के उद्देश्य से करता है तो उसके वे
यज्ञ, दान, तप, उपासना आदि अनुष्ठान यद्यपि शास्त्र-विहित होने से
स्वरूपतः सात्त्विक हैं, फिर भी दूसरे का अनिष्ट करने का दुर्भाव होने के
कारण तामसी हो जाते हैं और ‘अधो गच्छन्ति तामसाः’
(गीता 14
/18)—इस न्याय के अनुसार उनके करनेवाले मनुष्य अधोगतिको प्राप्त
होते हैं। इसी प्रकार बर्तन माँजना, झाड़ू देना आदि सेवारूप कर्म निम्न
श्रेणी के होनेपर भी निष्कामभावसे किये जानेपर करनेवाले का भाव उत्तम
होनेके कारण सात्त्विक हो जाते हैं और ‘ऊर्ध्वं गच्छन्ति
सत्त्वस्थाः’ (गीता 14/18)—इस न्याय के अनुसार वैसे
कर्म
करनेवाले मनुष्य उत्तम गति को प्राप्त होते हैं। अतः समझना चाहिये कि
क्रिया की अपेक्षा भाव प्रधान है।
यज्ञ-दान-तपरूप क्रिया की अपेक्षा भी भगवान् के नाम का जप और उनके स्वरूप का ध्यानरूप क्रिया उत्तम है, किंतु यह क्रिया सात्त्विक होने पर भी सकामभावसे की जाय तो राजसी बन जाती है। इसी प्रकार यज्ञ-दान-तपरूप क्रिया जप-ध्यानकी अपेक्षा निम्न श्रेणीकी होनेपर भी यदि फल और आसक्तिका त्याग करके निष्कामभावसे की जाय तो परम शान्तिरूप परमात्मा की प्राप्त करा सकती है। इसलिये जप-ध्यान से भी वह श्रेष्ठ मानी गयी है। गीता में भी कहा गया है—
यज्ञ-दान-तपरूप क्रिया की अपेक्षा भी भगवान् के नाम का जप और उनके स्वरूप का ध्यानरूप क्रिया उत्तम है, किंतु यह क्रिया सात्त्विक होने पर भी सकामभावसे की जाय तो राजसी बन जाती है। इसी प्रकार यज्ञ-दान-तपरूप क्रिया जप-ध्यानकी अपेक्षा निम्न श्रेणीकी होनेपर भी यदि फल और आसक्तिका त्याग करके निष्कामभावसे की जाय तो परम शान्तिरूप परमात्मा की प्राप्त करा सकती है। इसलिये जप-ध्यान से भी वह श्रेष्ठ मानी गयी है। गीता में भी कहा गया है—
ध्यानात् कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।। (12/12)
‘ध्यान से भी सब कर्मोंके फल का त्याग श्रेष्ठ है; क्योंकि
त्याग से तत्काल ही परम शान्ति होती है।’
अब यह बतलाया जाता है कि उत्तम क्रियाएँ और भाव कौन-कौन-से हैं। नमस्कार करना, स्नान करना, धर्म के लिये कष्ट सहना आदि शरीर की क्रियाएँ हैं; तीर्थ यात्रा करना पैरों की क्रिया है, यज्ञ और दान देना हाथ की क्रियाएँ हैं; गीता, भागवत, रामायण आदि सद्ग्रन्थों का पठन-पाठन करना वाणी की क्रिया हैं; देवताओं और महात्माओं का दर्शन करना नेत्रों की क्रिया है; भगवान् के गुण, प्रभाव, तत्त्व रहस्य को सुनना कानों की क्रिया है; भगवान् के नाम, चरित्र और गुणोंका मनन और चिन्तन करना तथा भगवान् के स्वरूप का ध्यान करना मनकी क्रियाएँ हैं एवं किसी आध्यात्मिक विषयका निश्चय करना बुद्धिकी क्रिया है। ये सभी उत्तम क्रियाएँ हैं। इन सब उत्तम-से-उत्तम क्रियाओं की अपेक्षा भी हृदय का उच्च भाव सर्वोत्तम है।
श्रद्धा, प्रेम, दया, क्षमा, शान्ति, समता, संतोष, सरलता, ज्ञान, वैराग्य, निर्भयता, आन्तरिक, निष्कामता आदि—ये सब हृदय के उत्तम भाव हैं। ये सभी आत्माका उद्धार करनेवाले हैं। जिस क्रिया से इनका संयोगहो जाता है, वह क्रिया भी उत्तम-से-उत्तम बन जाती है। मनुष्य को चाहिये कि उपर्युक्त भावों को ईश्वर की कृपा के प्रभाव से अपने हृदय में उत्तरोत्तर बढ़ते हुए देखता रहे। इस प्रकार देखनेवाले की उत्तरोत्तर उन्नति होती चली जाती है। हृदय के भाव उत्तम होनेपर मनुष्य के आचरण स्वतः ही उत्तम होने लगते हैं। उसे अपने आचरण सुधारने के लिये कोई अलग प्रयत्न नहीं करना पड़ता। उसके दुर्गुण-दुराचारों का अपने-आप ही अभाव हो जाता है; क्योंकि जहाँ प्रेम होता है, वहाँ द्वेष सम्भव नहीं; जहाँ दया है, वहाँ हिंसा के लिये स्थान नहीं; जहाँ क्षमा है, वहाँ क्रोध रह नहीं सकता; जहाँ समता है, वहाँ विषमता कहाँ और जहाँ शान्ति, है, वहां विक्षेप असम्भव है। इसी प्रकार अन्य सभी भावों के विषय में समझ लेना चाहिये।
जब हम किसी के साथ व्यवहार करें, उस समय हमें उसके साथ प्रेम, विनय, निरभिमानता, उदारता और निष्काम भाव आदिसे युक्त होकर व्यवहार करना चाहिये। इस प्रकार करने पर क्रिया स्वाभाविक ही उत्तम-से-उत्तम होने लगती है।
प्रथम हमें गीता के सोलहवें अध्याय के पहले से तीसरे श्लोक तक बतलाये हुए दैवी सम्पदा लक्षणों को अपने हृदय में देखते रहना चाहिये। ऐसा करने पर ईश्वर की कृपासे हम दैवी सम्पदा से सम्पन्न हो सकते हैं। फिर हमें गीता के बारहवें अध्याय के 13 वें से 19 वें श्लोक तक जो भगवत्प्राप्त भक्तोंके लक्षण बतलाये गये हैं, उनको अपनाना चाहिये, वे लक्षण उन भक्तों में तो स्वाभाविक होते हैं और साधकके लिये वे अनुकरणीय हैं। अतः उन भक्तों के भावों से भावित होकर हमें उनको अपने हृदय में देखते रहना चाहिये। ऐसा करनेपर ईश्वर की कृपा से हम वैसे ही बन सकते हैं। जो मनुष्य उन भक्तों के भावों को लक्ष्य बनाकर उनका अनुकरण करता है, वह भगवान् का अतिशय प्यारा है। भगवान् ने गीता में कहा है—
अब यह बतलाया जाता है कि उत्तम क्रियाएँ और भाव कौन-कौन-से हैं। नमस्कार करना, स्नान करना, धर्म के लिये कष्ट सहना आदि शरीर की क्रियाएँ हैं; तीर्थ यात्रा करना पैरों की क्रिया है, यज्ञ और दान देना हाथ की क्रियाएँ हैं; गीता, भागवत, रामायण आदि सद्ग्रन्थों का पठन-पाठन करना वाणी की क्रिया हैं; देवताओं और महात्माओं का दर्शन करना नेत्रों की क्रिया है; भगवान् के गुण, प्रभाव, तत्त्व रहस्य को सुनना कानों की क्रिया है; भगवान् के नाम, चरित्र और गुणोंका मनन और चिन्तन करना तथा भगवान् के स्वरूप का ध्यान करना मनकी क्रियाएँ हैं एवं किसी आध्यात्मिक विषयका निश्चय करना बुद्धिकी क्रिया है। ये सभी उत्तम क्रियाएँ हैं। इन सब उत्तम-से-उत्तम क्रियाओं की अपेक्षा भी हृदय का उच्च भाव सर्वोत्तम है।
श्रद्धा, प्रेम, दया, क्षमा, शान्ति, समता, संतोष, सरलता, ज्ञान, वैराग्य, निर्भयता, आन्तरिक, निष्कामता आदि—ये सब हृदय के उत्तम भाव हैं। ये सभी आत्माका उद्धार करनेवाले हैं। जिस क्रिया से इनका संयोगहो जाता है, वह क्रिया भी उत्तम-से-उत्तम बन जाती है। मनुष्य को चाहिये कि उपर्युक्त भावों को ईश्वर की कृपा के प्रभाव से अपने हृदय में उत्तरोत्तर बढ़ते हुए देखता रहे। इस प्रकार देखनेवाले की उत्तरोत्तर उन्नति होती चली जाती है। हृदय के भाव उत्तम होनेपर मनुष्य के आचरण स्वतः ही उत्तम होने लगते हैं। उसे अपने आचरण सुधारने के लिये कोई अलग प्रयत्न नहीं करना पड़ता। उसके दुर्गुण-दुराचारों का अपने-आप ही अभाव हो जाता है; क्योंकि जहाँ प्रेम होता है, वहाँ द्वेष सम्भव नहीं; जहाँ दया है, वहाँ हिंसा के लिये स्थान नहीं; जहाँ क्षमा है, वहाँ क्रोध रह नहीं सकता; जहाँ समता है, वहाँ विषमता कहाँ और जहाँ शान्ति, है, वहां विक्षेप असम्भव है। इसी प्रकार अन्य सभी भावों के विषय में समझ लेना चाहिये।
जब हम किसी के साथ व्यवहार करें, उस समय हमें उसके साथ प्रेम, विनय, निरभिमानता, उदारता और निष्काम भाव आदिसे युक्त होकर व्यवहार करना चाहिये। इस प्रकार करने पर क्रिया स्वाभाविक ही उत्तम-से-उत्तम होने लगती है।
प्रथम हमें गीता के सोलहवें अध्याय के पहले से तीसरे श्लोक तक बतलाये हुए दैवी सम्पदा लक्षणों को अपने हृदय में देखते रहना चाहिये। ऐसा करने पर ईश्वर की कृपासे हम दैवी सम्पदा से सम्पन्न हो सकते हैं। फिर हमें गीता के बारहवें अध्याय के 13 वें से 19 वें श्लोक तक जो भगवत्प्राप्त भक्तोंके लक्षण बतलाये गये हैं, उनको अपनाना चाहिये, वे लक्षण उन भक्तों में तो स्वाभाविक होते हैं और साधकके लिये वे अनुकरणीय हैं। अतः उन भक्तों के भावों से भावित होकर हमें उनको अपने हृदय में देखते रहना चाहिये। ऐसा करनेपर ईश्वर की कृपा से हम वैसे ही बन सकते हैं। जो मनुष्य उन भक्तों के भावों को लक्ष्य बनाकर उनका अनुकरण करता है, वह भगवान् का अतिशय प्यारा है। भगवान् ने गीता में कहा है—
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव में प्रियाः।।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव में प्रियाः।।
(12/20)
‘जो श्रद्धायुक्त पुरुष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धर्ममय
अमृत
को निष्काम प्रेमभाव से सेवन करते हैं, वे भक्त तो मुझको अतिशय प्रिय
हैं।’
भावका बड़ा महत्त्व है। एक तो वास्तव में भगवत्प्राप्त महापुरुष है और दूसरा एक उच्चकोटि का साधक सच्चा जिज्ञासु है। वह जिज्ञासु जब महात्मा को पाकर उनको तत्त्व से जान जाता है, तब वह भी उसी प्रकार तुरंत महात्मा बन जाता है, जिस प्रकार वास्तविक पारसमणिके साथ स्पर्श होते ही लोहा तुरंत सोना बन जाता है। यदि वह सोना न बने तो समझ लेना चाहिये कि या तो वह पारस पारस नहीं है, कोई पत्थर है; या वह लोहा लोहा नहीं है, लोहे का मैल है अथवा उन दोनों के बीच काष्ठ, वस्त्र आदि किसी तीसरे पदार्थ का व्यवधान है। इसी प्रकार यदि महात्मा का संग करके जिज्ञासु महात्मा नहीं बन जाता तो समझना चाहिये कि या तो वह महात्मा सच्चा महात्मा नहीं है या वह जिज्ञासु सच्चा श्रद्धालु नहीं है, अथवा जिज्ञासुमें कोई संशय, भ्रम आदिका व्यवधान है।
यह पारस की तुलना भी महापुरुष के लिए उपयुक्त उदाहरण नहीं है; क्योंकि महापुरुष तो पारस से भी बढ़कर है। किसी कवि ने कहा है—
भावका बड़ा महत्त्व है। एक तो वास्तव में भगवत्प्राप्त महापुरुष है और दूसरा एक उच्चकोटि का साधक सच्चा जिज्ञासु है। वह जिज्ञासु जब महात्मा को पाकर उनको तत्त्व से जान जाता है, तब वह भी उसी प्रकार तुरंत महात्मा बन जाता है, जिस प्रकार वास्तविक पारसमणिके साथ स्पर्श होते ही लोहा तुरंत सोना बन जाता है। यदि वह सोना न बने तो समझ लेना चाहिये कि या तो वह पारस पारस नहीं है, कोई पत्थर है; या वह लोहा लोहा नहीं है, लोहे का मैल है अथवा उन दोनों के बीच काष्ठ, वस्त्र आदि किसी तीसरे पदार्थ का व्यवधान है। इसी प्रकार यदि महात्मा का संग करके जिज्ञासु महात्मा नहीं बन जाता तो समझना चाहिये कि या तो वह महात्मा सच्चा महात्मा नहीं है या वह जिज्ञासु सच्चा श्रद्धालु नहीं है, अथवा जिज्ञासुमें कोई संशय, भ्रम आदिका व्यवधान है।
यह पारस की तुलना भी महापुरुष के लिए उपयुक्त उदाहरण नहीं है; क्योंकि महापुरुष तो पारस से भी बढ़कर है। किसी कवि ने कहा है—
पारस में अरु संतमें, बहुत अंतरो जान।
वह लोहा कंचन करै, वह करै आप समान।।
वह लोहा कंचन करै, वह करै आप समान।।
अभिप्राय यह है कि पारस लोहे को सोना बना सकता है, पर उसे पारस नहीं बना
सकता है, किंतु महात्मा जो जिज्ञासु को अपने समान महात्मा बना सकता है।
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